‘ वैभवलक्ष्मी व्रत ‘ – जय लक्ष्मी माँ
हेमा के दो लड़के थे। उसमें से दो साल का छोटा बच्चा कुंभ मेले में खो गया। उसकी बहुत खोज की। पेपर में दिया। टी.वी. पर दिया। गाव-गाव, शहर-शहर छान मारा। पर बच्चा नहीं मिला।
सारा घर शोकग्रस्त हो गया। मानो जीने का रस चला गया। रात-दिन हेमा रोया करती। उसके पति भी उदास से होकर हेमा को संभालने की कोशिश में लगे रहते। पति-पत्नी जैसे – तैसे समय व्यतित करने लगे।
एक दिन वे लोग बड़े लड़के की पाठ्यपुस्तक खरीदने बाजार में गये। वहाँ पुस्तक विक्रेता की दुकान पर “वैभवलक्ष्मी व्रत” की किताब देखि। उसे देखते ही देखते चार-पाँच बहनें पुस्तक की सात-सात प्रतियां ले गई। हेमा और उसके पति को आश्चर्य हुआ। उन्होने भी एक किताब खरीद ली और घर पर आये।
घर आ कर दंपति ने सारी किताब देखी-पढ़ी।
हेमा पति को कहने लगी : ‘मैं भी यह व्रत करूंगी। माँ तो दयात है। दुनिया की रीत से सब कर देखा पर मेरा लाल नहीं मिला। अब माताजी ही हमारी आशा की ज्योत है। वे प्रसन्न होंगे तो जरूर मेरा बेटा मिल जायेगा। में पूरे भाव से माताजी को विनती करूंगी…मनाऊगी।’ कहते-कहते हेमा की आखों में आँसू बहने लगे।
फिर हेमा ने हाथ – पाव धो कर मन्नत मानी : ‘हे धनलक्ष्मी माँ! मैं आपका “वैभवलक्ष्मी व्रत” इक्कीस शुक्रवार करूंगी। भाव से करूंगी। और आपकी 101 किताबे बाटूँगी। पर माँ! मुझे मेरे खोये हुए लाल से मिला दो। ऐसा संकल्प करके हेमा गिदगिड़ाने लगी।
बच्चे के खो जाने पर दोनो पती-पत्नी जरूरत हो उतना ही बोलते। समझो, मौन ही रहते। अत: हेमा निरंतर ‘जय माँ लक्ष्मी’ का रटन करने लगी।
शुक्रवार आते ही उसने पूरे भाव-भक्ति से ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ शास्त्रीय विधि से करने की शुरुआत की। घर में एक साल से कोई मीठी चीज़ बनायी ही नहीं थी। पर शुक्रवार को थोड़ा गुड का शीरा बना कर माताजी को प्रसाद रखा।
व्रत करके वह ‘जय माँ लक्ष्मी’ का रटन करते – करते सो गई।
सुबह होने से पहले हेमा को सपने में रंग-बिरंगी फव्वारे वाला भाग दिखाई दिया। वह बाग में उसका खोया हुआ बच्चा खेल रहा था। तुरन्त उसकी आखें खुल गई।
सवेरे उठते ही उसने स्नान करके धूप-दीप किया और ‘धनलक्ष्मी माँ’ की छबि को, लक्ष्मीजी के विविध स्वरूपो को और श्रीयंत्र को वंदन करके माथा टेका। फिर लक्ष्मी स्तवन किया। बाद में माताजी के सपने की बात कही। माताजी के मंदिर में जाकर श्रीफल रखा और वहाँ भी सपने की बात कही। बाद में घर आकार पति को सपने की बात कही।
उसके पति के कहा, ‘तू जो बाग का वर्णन करती है, वह मैसूर का वृंदावन गार्डन लगता है। में एक बार वहाँ गया था।’
तो चलो। हम वहीं जाकर मेरे लाडले को ढूंदेंगे। मेरा मन कहता है, माताजी ने ही हमें सपने द्वारा संकेत दिया है।
पति ने स्वीकृति दी। बड़े बेटे को ननंद के घर रख कर हेमा पति के साथ उसी दिन मैसूर जाने के लिए निकाल पड़ी। मैसूर पहुँचते ही दोनों वृंदावन गार्डन में गये और व्याकुलता से अपने बच्चे को ढूँढने लगे। मन में ‘जय माँ लक्ष्मी’ का रटन चालू था। और चमत्कार हुआ। सपने में हेमा ने जिस जगह बेटे को देखा था, वही जगह पर उसका बेटा उसके उम्र के बच्चे के साथ खेल रहा था। उन दोनों बच्चो के नजदीक एक दंपति बैठे थे। वे चेहरे से मद्रासी लगते थे।
हेमा ने दौड़कर अपने बच्चे को गोद में उठा लिया और छाती से चिपका कर रोने लगी। उसका बेटा भी घबरा कर रोने लगा। वह मद्रासी दंपति भी स्तब्ध बन कर खड़े हो गये। हेमा के पति ने हेमा को सात्वना देकर चुप कराया। फिर वह मद्रासी दंपति को बताया की यह बच्चा उसका है, वह कहाँ खो गया था, उसे किस-किस रीत से ढूंढा और पेपर के कटिंग भी दिखाये।
मद्रासी दंपति ने भी कहा की यह बच्चा वे लोग कुंभ स्नान करने गये थे तब ट्रेन में से मिला था। बच्चा ट्रेन में किस तरह आया वह उनको मालूम नहीं था। पर बच्चा बहुत रोता था। अंतःवे लोग उसे अपने साथ मैसूर ले आये। और अपने बच्चे की तरह पालते थे।
फिर जरूरी कार्यवाही करके, मद्रासी दंपति को बहुत-बहुत धन्यवाद देकर हेमा और उनका पति अपने बेटे को घर ले आये। घर में फिर से सुख का सागर लहराने लगा।
हेमा हर शुक्रवार शाम को कुछ न कुछ मीठा बनाकर माताजी को प्रसाद रखती। इस तरह इक्कीस शुक्रवार पूर्ण होते ही उसने भाव से उधापन किया और एक सौ एक ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ की किताबे बांटी।
हेमा के पड़ोसी वगैरह सब माताजी के व्रत का यह चमत्कार देख कर दंग रह गये।
ऐसा है “वैभवलक्ष्मी व्रत” का प्रभाव।
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