‘ वैभवलक्ष्मी व्रत ‘ – जय लक्ष्मी माँ
भागीदारी में झगड़ा हुआ। बिजनस का बंटवारा हो गया। तभी से ‘सुरेश’ के बुरे दिन शुरू हुए। वह दिन-रात मेहनत करता था। पर धंधा ठीक से नहीं चल रहा था। एक ही साल में वह टूट गया। उनकी पत्नी सरला बहुत सुशील थी। वह हिम्मत देती रहती। पर धंधा न चले तो आदमी का मन किस तरह प्रफुल्लित होगा? सरला चोरी-छुपे से कुछ न कुछ बेच कर घर चलाती थी। पति मन से और तबियत से ढीला होता जाता था। यह देख कर उनका मन व्यथित होता था।
एक बार उसकी मौसी उससे मिलने आई। सरला को मौसी की साथ अच्छी पटती थी। उसने मौसी को सब कुछ बता दीता। और रो पड़ी।
मौसी ने कहा, ‘तू ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ की मन्नत ले और ग्यारह या इक्कीस शुक्रवार व्रत कर। अभी मेरे साथ बाजार चल और व्रत की पुस्तक खरीद ले। धनलक्ष्मी माँ तेरे सब दुःख दूर करेगी।’
तुरन्त तैयार हो कर सरला मौसी के साथ बाजार गई और साहित्य संगम की शास्त्रीय विधि वाली, श्रीयंत्र और माताजी के आठ स्वरूप वाली पुस्तक खरीद ली। दूसरे दिन शुक्रवार था। सरला विधिवत इक्कीस शुक्रवार ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ की मन्नत मान कर व्रत करने लगी।
दूसरे शुक्रवार को सुरेश शाम को आया तब उसके चेहरे पर खुशी फूट रही थी। उसने कहा, ‘सरला! आज तो चमत्कार हो गया। एक बहुत बड़ी कंपनी को हमारे स्पेयर पार्टस की कवार्लीती और डिजाइन जंच गई। उसने हमें बहुत बड़ा ऑर्डर दिया है। लगता है, हमारा नसीब बदल रहा है।’
बात भी सच निकली। इक्कीस शुक्रवार पूरे होते ही सुरेख का बिजनस तेजी से बढ्ने लगा। पूरे भाव से सरला ने व्रत की उधापन विधि की और ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ का खरीदा हुआ पुस्तक तिजोरी में रख दिया।
एक ही साल में सुरेश ने मारुति कार खरीदी।
ऐसा है ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ का प्रभाव।